November 24, 2013

पतझड़

वो ऊन के उलझे नरम गोले
जो लिपटे नारंगी के कसैले रेशों में
ऐसे बिखरे पड़े रहते मानो
छत की सूखी ज़मीन पर
पड़ी दरारों को मना रहे हों... कि 
धूप जाएगी, और तुम्हारी वेदना शांत होगी
एक दिन ...

बचपन की तो वेदना ही थी ना  ...
वो सफ़ेद बादलों से झांकती हुई मीठी सी धूप

अब देह तरस गयी है
पर कितना किलसेगी यह सोचकर... कि
अब उस ऊन का और
छत पे पड़ी उस टूटी चटाई का ...सहारा कहाँ ?