वो ऊन के उलझे नरम गोले
जो लिपटे नारंगी के कसैले रेशों में
ऐसे बिखरे पड़े रहते मानो
छत की सूखी ज़मीन पर
पड़ी दरारों को मना रहे हों... कि
धूप जाएगी, और तुम्हारी वेदना शांत होगी
एक दिन ...
बचपन की तो वेदना ही थी ना ...
वो सफ़ेद बादलों से झांकती हुई मीठी सी धूप
अब देह तरस गयी है
पर कितना किलसेगी यह सोचकर... कि
अब उस ऊन का और
छत पे पड़ी उस टूटी चटाई का ...सहारा कहाँ ?
जो लिपटे नारंगी के कसैले रेशों में
ऐसे बिखरे पड़े रहते मानो
छत की सूखी ज़मीन पर
पड़ी दरारों को मना रहे हों... कि
धूप जाएगी, और तुम्हारी वेदना शांत होगी
एक दिन ...
बचपन की तो वेदना ही थी ना ...
वो सफ़ेद बादलों से झांकती हुई मीठी सी धूप
अब देह तरस गयी है
पर कितना किलसेगी यह सोचकर... कि
अब उस ऊन का और
छत पे पड़ी उस टूटी चटाई का ...सहारा कहाँ ?
have you written this??
ReplyDeleteHi Shruti, how are you? Just following up with my old blogger pals.
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